मध्‍यप्रदेश के राजकीय अभिलेखागार (भोपाल) में 1857 के संग्राम से संबंधित कुछ पत्र संग्रहीत है। ये पत्र महारानी लक्ष्‍मीबाई, रानी लड़ई दुलैया, राजा बखतबली सिंह, राजा मर्दन सिंह, राजा रतन सिंह और उस क्रांति के महान योद्धा, संगठक एवं अप्रतिम सेनानायक तात्‍या टोपे द्वारा लिखे गए थे। इनमें कई पत्र ऐसे हैं, जो आम आदमी, किसानों और सैनिकों द्वारा लिखे गए है। इन पत्रों की भावना से यह स्‍पष्‍ट होता है कि प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम का विस्‍तार दूर-दराज के ग्रामीण अंचलों तक हो रहा था और केवल स्‍वतंत्रता की इच्‍छा से आम व्‍यक्ति क्रांति के इस महायज्ञ में अपने अस्‍तित्‍व की समिधा डालने को तत्‍पर हो रहा था।

1857 के स्‍वतंत्रता संग्राम से संबंधित इन पत्रों की प्राप्‍ति का इतिहास भी रोचक है। आजादी की पहली लड़ाई जब चरमोत्‍कर्ष पर थी, तब तात्‍या टोपे अपनी फौज के साथ ओरछा रियासत के गांव आष्‍ठौन में अंग्रेजों से मोर्चा लेने की तैयारी में जुटे हुए थे। तात्‍या टोपे के आष्‍ठौन में होने की खबर मुखबिरों से अंग्रेजों को लग गई और अंग्रेजी फौज ने यकायक तात्‍या के डेरे पर हमला बोल दिया। उस समय तात्‍या टोपे मोर्चा लेने की स्‍थिति में नहीं थे। लिहाजा, ऊहापोह में तात्‍या अपना कुछ बहुमूल्‍य सामान यथास्‍थान छोड़कर सुरक्षित भाग निकले।

उस दौरान ओरछा के दीवान नत्‍थे खां थे। तात्‍या द्वारा जल्‍दबाजी में छोड़े गए सामान की पोटली नत्‍थे खां के एक विश्‍वसनीय सिपाही ने उन्‍हें लाकर दी। इस सामान में एक बस्‍ता था, जिसमें जरूरी कागजात और चिट्‌ठी-पत्री थीं। इसी सामान में एक तलवार और एक उच्‍चकोटि की गुप्‍ती भी थी। नत्‍थे खां के यहां कोई पुत्र नहीं था, इसलिए यह धरोहर उनके दामाद को मिली। दामाद के भी कोई पुत्र नहीं था, लिहाजा तात्‍या टोपे के सामान के वारिस उनके दामाद अब्‍दुल मजीद फौजदार बने, जो टीकमगढ़ के निवासी थे।

स्‍वतंत्र भारत में 1976 में टीकमगढ़ के राजा नरेन्‍द्र सिंह जूदेव को इन पत्रों की खबर अब्‍दुल मजीद के पास होने की लगी। नरेन्‍द्र सिंह उस समय मध्‍यप्रदेश सरकार में मंत्री भी थे। उन्‍होंने इन पत्रों के ऐतिहासिक महत्‍व को समझते हुए तात्‍या की धरोहर को राष्‍ट्रीय धरोहर बनाने की दिशा में कदम उठाया। उन्‍होंने इन पत्रों की वास्‍तविकता की पुष्‍टि इतिहासकार दत्तात्रेय वामन पोद्‌दार से भी कराई। उन्‍होंने इन पत्रों के मूल होने का सत्‍यापन किया। प्रसिद्व ऐतिहासिक उपन्‍यास लेखक डावृन्‍दावनलाल वर्मा ने भी इन पत्रों को मौलिक बताते हुए तय किया कि सामान में प्राप्‍त तलवार तथा गुप्‍ती भी तात्‍या टोपे की ही हैं। डॉ वर्मा ने यह भी तय किया कि जिस स्‍थान और जिस समय इस साम्र्रगी का मिलना बताया जा रहा है, उस समय वहां तात्‍या टोपे के अलावा किसी अन्‍य सेनानायक ने पड़ाव नहीं डाला था।

तात्‍या के बस्‍ते से कुल 255 पत्र प्राप्‍त हुए थे, जो देवनागरी (हिन्‍दी) एवं फारसी लिपि में थे। हिन्‍दी पत्रों की भाषा ठेठ बुंदेली है। इन पत्रों में 125 हिन्‍दी में और 130 उर्दू में लिखे हुए हैं। पत्रों के साथ एक रोजनामचा भी है।

तात्‍या की तलवार और गुप्‍ती भी अनूठी है। तलवार सुनहरी नक्‍काशी के मूठ वाली है, जो मोती बंदर किस्‍म की बताई गई। इस तलवार की म्‍यान पर दो कुंदों में चार अंगुल लंबे बाण के अग्रभाग जैसे पैने हथियार हैं। इन हथियारों पर हाथी दांत के बने शेर के मुंह की आकृतियां लगी हुई हैं। इसी तरह जो गुप्‍ती प्राप्‍त हुई, वह भी विचित्र है। गुप्‍ती की मूठ सोने की है। इसके सिरे पर एक चूड़ीदार डिबिया लगी हुई है, जिसमें इत्र-फुलेल रखने की व्‍यवस्‍था है। तात्‍या टोपे की यह अमूल्‍य धरोहर अब राजकीय अभिलेखागार, भोपाल का गौरव बढ़ा रही है।